सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

कबीर नवै सब आपको, पर को नवै न कोय ।

कबीर नवै सब आपको, पर को नवै न कोय ।
घालि तराजू तौलिये, नवै सो भारी होय ॥

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥

दर्शन करना है तो, दर्पण माँजत रहिये ।
दर्पण में लगी कई, तो दर्श कहाँ से पाई ॥

बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि ।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि ॥

मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ ।
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।

गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥

परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥

कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

`कबीर' रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ ॥

पतिबरता मैली भली, गले काँच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै , ज्यों रवि ससि की जोत ॥