शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।

गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥

परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥

कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

`कबीर' रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ ॥

पतिबरता मैली भली, गले काँच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै , ज्यों रवि ससि की जोत ॥

1 टिप्पणी:

  1. प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
    राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

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